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2-4-31 अर्धर्चाः पुंसि च

प्रथमावृत्तिः

TBD.

काशिका

अर्धर्चादयः शब्दाः पुंसि नपुंसके च भाष्यन्ते। अर्धर्चः। अर्धर्चम्। गोमयः। गोमयम्। शब्दरूपाऽश्रया च इयं द्विलिङ्गता क्वचिदर्थभेदेन अपि व्यवतिष्ठते, यथा पड्मशङ्खशब्दौ निधिवचनौ पुंलिङ्गौ, जलजे उभयलिङ्गौ। भूतशब्दः पिशाचे उभयलिङ्गः, क्रियाशब्दस्य अभिधेयवल्लिङ्गम्। सैन्धवशब्दो लवणे उभयलिङ्गः, यौगिकस्य अभिधेयवल्लिङ्गम्। सारशब्द उत्कर्षे पुंलिङ्गः, न्यायादनपेते नपुंसकम्, नैतत् सारम् इति। धर्मः इत्यपूर्वे पुंलिङ्गः, तत्साधने नपुंसकम्। तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। अर्धर्च। गोमय। कषाय। कार्षापण। कुतप। कपाट। शङ्ख। चक्र। गूथ। यूथ। ध्वज। कबन्ध। पड्म। गृह। सरक। कंस। दिवस। यूष। अन्धकार। दण्ड। कमण्डलु। मन्ड। भूत। द्वीप। द्यूत। चक्र। धर्म। कर्मन्। मोदक। शतमान। यान। नख। नखर। चरण। पुच्छ। दाडिम। हिम। रजत। सक्तु। पिधान। सार। पात्र। घृत। सैन्धव। औषध। आढक। चषक। द्रोण। खलीन। पात्रीव। षष्टिक। वार। बान। प्रोथ। कपैत्थ। शुष्क। शील। शुल्ब। सीधु। कवच। रेणु। कपट। सीकर। मुसल। सुवर्ण। यूप। चमस। वर्ण। क्षीर। कर्ष। आकाश। अष्टापद। मङ्गल। निधन। निर्यास। जृम्भ। वृत्त। पुस्त। क्ष्वेडित। शृङ्ग। शृङ्खल। मधु। मूल। मूलक। शराव। शाल। वप्र। विमान। मुख। प्रग्रीव। शूल। वज्र। कर्पट। शिखर। कल्क। नाट। मस्तक। वलय। कुसुम। तृण। पङ्क। कुण्डल। किरीट। अर्बुद। अङ्कुश। तिमिर। आश्रम। भूषण। इल्वस। मुकुल। वसन्त। तडाग। पिटक। विटङ्क। माष। कोश। फलक। दिन। दैवत। पिनाक। समर। स्थाणु। अनीक। उपवास। शाक। कर्पास। चशाल। खण्ड। दर। विटप। रण। बल। मल। मृणाल। हस्त। सूत्र। ताण्डव। गाण्डीव। मण्डप। पटह। सौध। पार्श्व। शरीर। फल। छल। पूर। राष्ट्र। विश्व। अम्बर। कुट्टिम। मण्डल। ककुद। तोमर। तोरण। मञ्चक। पुङ्ख। मध्य। बाल। वल्मीक। वर्ष। वस्त्र। देह। उद्यान। उद्योग। स्नेह। स्वर। सङ्गम। निष्क। क्षेम। शूक। छत्र। पवित्र। यौवन। पानक। मूषिक। वल्कल। कुञ्ज। विहार। लोहित। विषाण। भवन। अरण्य। पुलिन। दृढ। आसन। ऐरावत। शूर्प। तीर्थ। लोमश। तमाल। लोह। दण्डक। शपथ। प्रतिसर। दारु। धनुस्। मान। तङ्क। वितङ्क। मव। सहस्र। ओदन। प्रवाल। शकट। अपराह्ण। नीड। शकल। इति अर्धर्चादिः।

Ashtadhyayi (C.S.Vasu)

TBD.

लघु

967

बालमनोरमा

806 अर्धर्चाः। बहुवचनात्तदादीनां ग्रहणमित्याह–अर्धर्चादय इति। अर्धर्चमिति। ऋचोऽर्धमिति विग्रहे `अर्द्धं नपुंसक'मिति समासः। `ऋक्पूः' इति अच्। परवल्लिङ्गं स्त्रीत्वं बाधित्वा पुंनपुंसकत्वविकल्पः।

तत्त्वबोधिनी

708 अद्र्धर्चा इति। इह केषांचिदर्थभेदेन व्यवस्थेष्यते। सा च व्यवस्था,— मद्यमकरन्दमाक्षिकाणां वाची मधुशब्दो द्विलिङ्गः, चैत्रादिवाची तु पुंलिङ्गः, भूतः पिशैचे द्विलिङ्गः, क्रियावचनस्तु विशेष्येलिङ्ग इत्येवं यथायथं ज्ञेया। `अद्र्धर्चाः पुंसि च ' `स नपुंसक'मित्यनयोर्मध्ये `जात्याख्याया'मिति चतुःसूत्र्याः सङ्गतिरिह चिन्त्या। बहूनां वचनं प्रतिपादनमिति व्याख्या नात्फलितोऽत्रातिदेश इत्याशयेनाह–।

Satishji's सूत्र-सूचिः

TBD.