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4-1-110 अश्वादिभ्यः फञ्

प्रथमावृत्तिः

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काशिका

आङ्गिरस इति निवृत्तम्। अश्वादिभ्यः गोत्रापत्ये फञ् प्रत्ययो भवति। आश्वायनः। आश्मायनः। ये त्वत्र प्रत्ययान्ताः पठ्यन्ते तेभ्यः सामार्थ्याद् यूनि प्रत्ययो विज्ञायते। अश्व। अश्मन्। शङ्ख। बिद। पुट। रोहिण। खर्जूर। खर्जूल। पिञ्जूर। भडिल। भण्डिल। भडित। भण्डित। भण्डिक। प्रहृत। रामोद। क्षत्र। ग्रीवा। काश। गोलाङ्क्य। अर्क। स्वन। ध्वन। पाद। चक्र। कुल। पवित्र। गोमिन्। श्याम। धूम। धूम्र। वाग्मिन्। विश्वानर। कुट। वेश। शप आत्रेये। नत्त। तड। नड। ग्रीष्म। अर्ह। विशम्य। विशाला। गिरि। चपल। चुनम। दासक। वैल्य। धर्म। आनडुह्य। पुंसिजात। अर्जुन। शूद्रक। सुमनस्। दुर्मनस्। क्षान्त। प्राच्य। कित। काण। चुम्प। श्रविष्ठा। वीक्ष्य। पविन्दा। आत्रेय भारद्वाजे। कुत्स। आतव। कितव। शिव। खदिर। भारद्वाज आत्रेये।

Ashtadhyayi (C.S.Vasu)

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लघु

बालमनोरमा

1097 अ\उfffदाआदिभ्यः। गोत्रे इति। शेषपूरणमिदम्। `आङ्गिरसे' इति निवृत्तम्। आ\उfffदाआयन इति। अ\उfffदास्य गोत्रापत्यमिति विग्रहः। इञपवादः फञ्। पुंसि जाते इति। गणसूत्रम्। प्रकृतिविशेषणमिति। पुंसि विद्यमानो यो जातशब्दस्तस्माद्गोत्रे फञित्यर्थः। जातेय इति। स्त्रीब्यो ढक्'।

तत्त्वबोधिनी

918 अ\उfffदाआदिभ्यः। गोत्र इति। इह गणे बैल्य, अनाडुह्र, आत्रेय—इति गोत्रप्रत्ययान्तारुआयः पठ\उfffद्न्ते तेभ्यस्तु यून्येव। `एको गोत्रे', `गोत्राद्यूनी'ति वचनात्ष। तत्र बिलिर्नाम राजर्षिस्ततो `वृद्धेत्कोसले'ति ञ्यङ्। आनडुह्रशब्दो गर्गादिञन्तः। `आत्रेय'शब्दो डगन्त इति ज्ञेयः। पुंसि जात इति। गणसूत्रमिदम्। जातशब्दे पुंसि विद्यमाने फञित्यर्थः। कस्मादित्याकाङ्क्षायामर्थाज्जातशब्दादिति लभ्यते। जाताया इति। लिङ्गविशिष्टपरि भाषया, एकादेशस्य पूर्वान्तत्वेन ग्रहणाद्वा प्राप्तिः।

Satishji's सूत्र-सूचिः

TBD.