3-2-142 संपृचानुरुधाऽङ्यमाऽङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेविसंज्वरपरिक्षिपपरिरटपरिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषद्रुहदुहयुजाऽक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरापचराऽमुषाभ्याहनश् च
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घिनुणनुवर्तते। संपृचादिभ्यो धातुभ्यो घिनुण् भवति तच्छीलादिषु। पृची सम्पर्के इति रुधादिर् गृह्यते नत्वदादिर् लुग्विकरणत्वात्। परिदेविर्भ्वादिर्गृह्यते देवृ देवने इति। क्षिप प्रेरणे दिवादिस्तुदादिश्च सामानेन गृह्यते। युज समाधौ दिवादिः, युजिर् योगे रुधादिः द्वयोरपि ग्रहणम्। रञ्ज रागे इत्यस्य निपातनादनुनासिकलोपः। संपर्की। अनुरोधी। आयामी। आयासी। परिसारी। संसर्गी। परिदेवी। संज्वारी। परिक्षेपी। परिराटी। परिवादी। परिदाही। परिमोही। दोषी। द्वेषी। द्रोही। दोही। योगी। आक्रीडी। विवेकी। त्यागी। रागी। भागी। अतिचारी। अपचारी। आमोषी। अभ्याघाती।
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924 संपृचानु। संपृच, अनुरुध, आड\उfffद्म, आड\उfffद्स, परिसृ, संसृज, परिदेवि, संज्वर, परिक्षिप, परिरट, परिवद, परिदह, परिमुह, दुष, द्विष, द्रुह, दुह, युज, आक्रीड, विविच, त्यज, रज, भज, तिचर, अपचर, आमुष , अभ्याहन्, एषां सप्तविंशतेद्र्वन्द्वात्पञ्चमी। संपर्कीति। `चजो'रिति कुत्वम्। अनुरोधीत्यादौ लघूपधगुणः। अदुपधेषु उपधावृद्धिः। परिदेवीति। `देवृ देवने' भ्वादिः। दीव्यतेस्तु ण्यन्तस्य ग्रहणं , लाक्षणिकत्वात्, अण्यन्तैः साहचर्याच्च। अभ्याघातीति। `हनस्तोऽचिण्णलो'रिति तत्वम्। `हो हन्ते' रिति कुत्वम्।
759 संपृचा। संपर्कीति। पृची संपर्के। `चजो' कुत्वं। गुणः। परिदेवीति। देवृ देवने भ्वादिः। ण्यन्तस्य दीव्यतेस्तु नेह ग्रहणं, लाक्षणिकत्वात्, अण्यन्तैः साहचर्याच्च। अभ्याघातीति। अभ्याङ्पूर्वाद्धन्तेर्हस्य कुत्वेन घः। `हनस्तोऽचिण्णलोःर' इति नस्य तः। `अत उपधायाः' इति वृद्धिः।
वृत्तिः संपृचादिभ्यो घिनुण् स्यात् तच्छीलादिषु कर्तृषु । Following any one of the verbal roots listed below, the affix ‘घिनुँण्’ may be used to denote an agent who performs an action because of his nature/habit or sense of duty or skill -
(i) सम् + √पृच् (पृचीँ सम्पर्के ७. २५)
(ii) अनु + √रुध् (रुधिँर् आवरणे ७. १)
(iii) आङ् (आ) + √यम् (यमँ उपरमे १. ११३९)
(iv) आङ् (आ) + √यस् (यसुँ प्रयत्ने ४. १०७)
(v) परि + √सृ (सृ गतौ १. १०८५)
(vi) सम् + √सृज् (सृजँ विसर्गे ६. १५०)
(vii) परि + √देव् (देवृँ देवने १. ५७३)
(viii) सम् + √ज्वर् (ज्वरँ रोगे १. ८८५)
(ix) परि + √क्षिप् (क्षिपँ प्रेरणे ४. १५, ६. ५)
(x) परि + √रट् (रटँ परिभाषणे १. ३३४)
(xi) परि + √वद् (वदँ व्यक्तायां वाचि १. ११६४)
(xii) परि + √दह् (दहँ भस्मीकरणे १. ११४६)
(xiii) परि + √मुह् (मुहँ वैचित्ये ४. ९५)
(xiv) √दुष् (दुषँ वैकृत्ये ४. ८२)
(xv) √द्विष् (द्विषँ अप्रीतौ २. ३)
(xvi) √द्रुह् (द्रुहँ जिघांसायाम् ४. ९४)
(xvii) √दुह् (दुहँ प्रपूरणे २. ४)
(xviii) √युज् (युजँ समाधौ ४. ७४, युजिँर् योगे ७. ७)
(xix) आङ् (आ) + √क्रीड् (क्रीडृँ विहारे १. ४०५)
(xx) वि + √विच् (विचिँर् पृथग्भावे ७. ५)
(xxi) √त्यज् (त्यजँ हानौ १. ११४१)
(xxii) √रञ्ज् (रञ्जँ रागे १. ११५४, ४. ६३). Note: ‘रज’ इति निर्देशान्नलोप:।
(xxiii) √भज् (भजँ सेवायाम् १. ११५३)
(xxiv) अति + √चर् (चरँ गत्यर्थ: | भक्षणे च १. ६४०)
(xxv) अप + √चर् (चरँ गत्यर्थ: | भक्षणे च १. ६४०)
(xxvi) आङ् (आ) + √मुष् (मुषँ स्तेये ९. ६६)
(xxvii) अभि + आङ् (आ) + √हन् (हनँ हिंसागत्योः #२. २)
उदाहरणम् – त्यजति तच्छील:/तद्धर्मा/तत्साधुकारी = त्यागी ।
त्यज् + घिनुँण् 3-2-142
= त्यज् + इन् 1-3-2, 1-3-3, 1-3-8, 1-3-9
= त्यग् + इन् 7-3-52
= त्यागिन् 7-2-116. ‘त्यागिन्’ gets the प्रातिपदिक-सञ्ज्ञा by 1-2-46.